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दोपहर में लाइट चली गई थी। गरमी और पसीने से बदन चिपक रहा था। दरवाज़ा खुला था और तभी वो सीढ़ियाँ उतरती आई – एक ढीली सी cotton की टी-शर्ट और ट्रांसपेरेंट सी स्लिप में। बाल गीले थे, चेहरा थोड़ा पसीने से चमक रहा था।
आइने में देखा — सीने पर हल्का उभार, टाँगों में भारीपन, आँखों के नीचे हलकी थकान। अब समझ आ रहा था — पिछले कुछ हफ्तों में जो शरीर में बदलाव था, वो सिर्फ लस्ट से भरी रातों का असर नहीं था… कुछ और भी पल रहा था।
अब वो मुझे उठा-उठाकर चोद रहा था… हर झटके में मेरी छाती हिल रही थी, मेरी चूत भर चुकी थी लेकिन उसकी भूख रुकी नहीं। मेरे होठों से चीखें निकल रही थीं — तेज़, रुक-रुक कर… जैसे orgasm में बसी हुई सिसकियाँ। मैं काँप रही थी… मेरे नाखून उसकी पीठ में धँस चुके थे… और मैं… मैं अपनी पहली झड़ में डूब रही थी… पूरी देह थरथरा रही थी।
तेरे हाथ मेरी कमर पर… तू मेरी shirt को ऊपर करता है… मेरी गांड खुल जाती है — गोल, मुलायम, और सिर्फ तेरे लंड के लिए...